गुरुवार, 1 जून 2023
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शहीदों के सरताज़ सरदार भगतसिंह
शहीदों के सरताज़ सरदार भगतसिंह
तारीख़ : 23 मार्च 1931
बसंत ऋतु की मदहोशी से सराबोर दिन
स्थान: लाहौर सेंट्रल जेल
स्वतंत्रता संग्राम के दिन थे। लाहौर सेंट्रल जेल में भारत के तीन वीर नौजवान भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव कैद थे। लाहौर षड़यंत्र केस में स्वंतत्रता संग्राम की इस त्रिमूर्ति को फांसी की सजा हुई थी। फांसी दिए जाने के लिए 24 मार्च 1931 का दिन मुक़र्रर किया गया था।
फांसी से चंद घंटे पहले, भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता को भगतसिंह से जेल में मिलने की इजाजत दे दी गई। उनकी दरखास्त थी कि वे अपने मुवक्किल की आखिरी इच्छा जानना चाहते हैं और इसे मान लिया गया। भगतसिंह ने मेहता का एक मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे उनके लिए " The Revolutionary Lenin ( क्रांतिकारी लेनिन की जीवनी ) किताब साथ लाए हैं। इस किताब की समीक्षा अखबार में पढ़कर भगतसिंह बहुत प्रभावित हुए थे। इसलिए ये किताब उन्होंने अपने वकील मेहता के जरिए मंगवाई थी।
मेहता से ये किताब प्राप्त कर भगतसिंह बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है। मेहता ने उनसे पूछा कि क्या वे देश को कोई संदेश देना चाहेंगे। अपनी निगाहें किताब से बिना हटाए भगत सिंह ने कहा,
"मेरे दो नारे उन तक पहुंचाएं-
‘साम्राज्यवाद खत्म हो‘ (Down with Imperialism ) और ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ ( Long Live Revolution )।”
मेहता : "आज तुम कैसे हो?”
भगत सिंह : "हमेशा की तरह खुश हूं।”
मेहता : "क्या तुम्हें किसी चीज की इच्छा है?”
भगत सिंह : "हां, मैं दुबारा से इस देश में पैदा होना चाहता हूँ ताकि इसकी सेवा कर सकूं।”
भगत सिंह ने मेहता से कहा कि पंडित नेहरू और बाबू सुभाषचंद्र बोस ने जो रुचि उनके मुकदमे में दिखाई उसके लिए दोनों का धन्यवाद करें।
मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारियों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बताया कि उन तीनों की फांसी का वक्त ग्यारह घंटे घटाकर 24 मार्च की सुबह छह बजे की जगह आज 23 मार्च की शाम सात बजे कर दिया गया है।
शाम के 5:00 बजे थे। बड़े जेलर ने भगत सिंह के कोठरी के दरवाजे पर पहुंचकर हिचकिचाते हुए फ़रमान सुनाया।
"सरदारजी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है। आप तैयार हो जाएं।"
रूसी क्रांतिकारी नेता लेनिन की जीवनी के पन्नों पर आंखे गड़ाए भगत सिंह ने जेलर को जबाब दिया-- "ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।"
आवाज में कड़क थी।
भगतसिंह ने उस किताब के कुछ पैराग्राफ और पढ़े।
अंतिम बार प्यार से अपनी कोठरी की तरफ देखा, फिर तत्काल बाहर आ गए। भय और उदासी से चेहरा एकदम मुक्त।
कोठरी के बाहर खड़े थे उनके अंतरंग मित्र और मृत्युपथ के सहयात्री राजगुरु और सुखदेव। तीनों ने एक दूसरे को देखा, गले लगाया और एक दूजे के गले में हाथ डालकर, झूमते- गाते आगे बढ़े। भगत सिंह सदा की तरह बीच में थे। वतन को अंतिम प्रणाम। अंतिम गीत। तीनों की पुरजोर आवाज़ जेल की मोटी- मोटी दीवारों से टकराकर गूंजने लगी।
" दिल से न निकलेगी मरकर भी वतन की उल्फत,
मेरी मिट्टी से भी खुशबू- ए- वतन आया करेगी।"
फांसी के फंदे की तरफ़ ले जाते समय तीनों के हाथ बंधे हुए थे। वे संतरियों के पीछे लंबे-लंबे डग भरते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे। उन्होंने अपना प्रिय क्रांतिकारी गीत गाना शुरू कर दिया:
'कभी वो दिन भी आएगा कि जब आजाद हम होंगे;
ये अपनी ही जमीं होगी ये अपना आसमां होगा।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले;
वतन पर मिटने वालों का यही नाम-ओ-निशां होगा॥'
भगत सिंह ने बुलंद आवाज़ में एक भाषण दिया, जिसे कैदी अपनी कोठरियों से भी सुन सकते थे।
"असली क्रांतिकारी फौजें गांवों और कारखानों में हैं, किसान और मजदूर। लेकिन हमारे नेता उन्हें नहीं संभालते और न ही संभालने की हिम्मत कर सकते हैं। एक बार जब सोया हुआ शेर जाग जाता है, तो जो कुछ हमारे नेता चाहते हैं वह उसे पाने के बाद भी नहीं रुकता हैं...
पहले अपने निजीपन को खत्म करें। निजी सुख-चैन के सपनों को छोड़ दें। फिर काम करना शुरू करें। एक-एक इंच करके तुम्हें आगे बढ़ना चाहिए। इसके लिए हिम्मत, लगन और बहुत दृढ़ संकल्प की जरूरत है... तकलीफों और बलिदान से आप जीत कर सामने आएंगे और इस तरह की जीतें, क्रांति की बेशकीमती दौलत होती हैं।"
6 बजते ही कैदियों ने भारी जूतों की आवाज़ और जाने-पहचाने गीत, "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” की गूंज सुनी। तीनों शूरवीरों ने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, ”माई रंग दे मेरा बसंती चोला।” और इसके बाद वहां ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान आजाद हो’ के नारे लगने लगे। सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे।
फांसी घर की तरफ बढ़ते कदमों में कोई लड़खड़ाहट नहीं। फांसी घर में मौजूद थे लाहौर के अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर। उसकी तरफ मुखातिब होते हुए भगत सिंह ने गरजते हुए कहा-
"Well Mr. Magistrate, you are fortunate to be able to-day to see how Indian revolutionaries can embrace death with pleasure for the sake of their supreme ideal".
मजिस्ट्रेट महोदय,आप भाग्यशाली हैं कि आज आप अपनी आंखों से यह देखने का अवसर पा रहे हैं कि भारत के क्रांतिकारी किस प्रकार प्रसन्नता से अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं।
आवाज में सच्चाई थी। कमाल की निर्भीकता थी।
तीनों वीर अपने-अपने निर्धारित फांसी के फंदे के नीचे आकर खड़े हो गए। बीच में भगत सिंह। एक तरफ राजगुरु, दूसरी तरफ सुखदेव। तीनों एक साथ गरजे- "इंकलाब जिंदाबाद... साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!"
तीनों ने खुद अपना फंदा पकड़ा, उसे चूमा, अपने हाथों अपने गले में डाला। जल्लाद ने कांपते हाथों से फंदा ठीक किया। नीचे आकर चरखी घुमाई, तख्ता गिरा। जल्लाद खुद रो पड़ा।
कुछ देर बाद सब कुछ शांत हो चुका था। फांसी के बहुत देर बाद जेल वार्डन चरत सिंह फूट-फूट कर रोने लगा। उसने अपनी तीस साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थीं लेकिन किसी को भी हंसते-मुस्कराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा कि उन तीनों ने किया था।
देश के तीन खिलते फूलों को तोड़कर कुचल दिया गया था। बात ये भी थी कि उनकी बहादुरी-गाथा ने अंग्रेजी हुकूमत का समाधि- लेख लिख दिया था।
उधर सूरज अस्त हो चला था। इधर भारत की तरुणाई भी अस्त हो गई थी। शाम के लगभग 7:30 बज चुके थे। आज़ादी के तीनों दीवानों को अंग्रेज़ी हुक़ूमत द्वारा फांसी दी जा चुकी थी।
जेल में क़ैदियों की कोठरियों से सिर्फ एक आवाज गूंज रही थी- 'इंकलाब जिंदाबाद!'
तीन नौजवान अब फर्श पर पड़े तीन जिस्म थे।अधिकारियों ने जेल के पिछवाड़े की दीवार का एक हिस्सा तुड़वा दिया और वहाँ से अंधेरा होने पर एक ट्रक लाया गया। तीनों नौजवानों के शवों को उसमें बोरों की तरह फेंक दिया गया। अंतिम संस्कार की जगह रावी नदी का किनारा तय किया गया था। लेकिन नदी का पानी काफ़ी उथला था। ऐसी स्थिति में सतलुज पर जाने का फैसला लिया गया। तीनों के देह को कड़े पहरे में सतलुज के किनारे गड्ढे में अग्नि को समर्पित कर दिया गया। आज़ादी के इन दीवानों की जिस्म का जर्रा- जर्रा सुंगन्ध बनकर हवा के संग हर तरफ फैल गया था।
शवों का अंतिम संस्कार ठीक तरह से नहीं हुआ था। गांधासिंहवाला गांव के लोग चिताओं को जलते देखकर दौड़ते हुए वहां पहुंच गए। शव जैसे थे, वैसे ही छोड़कर सिपाही अपनी गाड़ियों की तरफ भागे और वापिस लाहौर भाग गए। गांववालों ने बड़ी इज्जत के साथ उनके अवशेषों को इकट्ठा कर लिया।
फांसी की खबर लाहौर और पंजाब के दूसरे शहरों में जंगल की आग की तरह फैल गई। नौजवानों ने सारी रात ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘भगत सिंह जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए जुलूस निकाले। पूरा देश रो रहा था, नौजवानों के गले ‘ भगतसिंह जिंदाबाद’ के गगन-भेदी नारों से बैठ गए थे।
तीनों नौजवानों के अवशेष दाह संस्कार स्थल से इकट्ठा कर लोग लाहौर पहुंच चुके थे। अगले दिन नीलागुम्बद से उनकी शोक यात्रा शुरू हुई। तीन मील से भी लंबे जुलूस में हजारों हिंदू, मुसलमानों और सिक्खों ने हिस्सा लिया। बहुत से लोगों ने काली पट्टियां बांधी हुई थीं और औरतों ने काली साड़ियां पहनी हुई थीं। सारी जगह काले झण्डों से पटी पड़ी थी। भगत सिंह की बहिन भी लाहौर पहुंच गई थी। फूलों से सजे तीन ताबूत, जिनके आगे भगत सिंह के माता-पिता थे, जुलूस में शामिल हुए। तेज चीखों से आसमान गूंज उठा। लोग फूट-फूट कर रो रहे थे।
जुलूस रावी नदी के किनारे ही पहुंचा, जहां चौबीस घंटे पहले अधिकारी उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे।
अंततः भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का विधिवत अंतिम संस्कार पंजाब के फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला गाँव में किया गया। यह गाँव पाकिस्तान की सीमा के निकट सतलुज नदी के किनारे स्थित है।
फांसी की सज़ा क्यों?
क्या भगतसिंह को फांसी की सज़ा असेम्बली में बम फेंकने के कारण दी गई। जी, नहीं।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा लाहौर में पुलिस अफसर सांडर्स की हत्या के जुर्म में सुनाई गई थी। असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह के पास से जो रिवाल्वर बरामद की गई उसको बाद में सांडर्स की हत्या में प्रयुक्त हथियार माना गया। इस संदर्भ में यह तथ्य जान लेना जरूरी है कि सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह और उनके साथी नामजद आरोपी नहीं थे। सांडर्स की हत्या के बाद लाहौर पुलिस ने अनारकली थाने में जो एफ आई आर दर्ज़ करवाई थी उसके मुताबिक एक चश्मदीद गवाह के तौर पर एक पुलिसवाले ने 17 दिसंबर 1928 को शाम 4:30 बजे के लगभग दो अज्ञात लोगों के द्वारा पी सांडर्स की हत्या करने का उल्लेख किया था।
यहाँ यह बताना सुसंगत होगा कि असेम्बली बम कांड केस में भगतसिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। जेल से छूटने के बाद बटुकेश्वर पटना में रहने लगे और सन 1965 में बीमारी के कारण AIMS, दिल्ली में उनका देहांत हो गया। दत्त के देहांत के समय भगत सिंह की माँ विद्यावती उनके पास थीं। दत्त की इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार हुसैनीवाला (फिरोज़पुर, जहाँ पर भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार हुआ था) में किया गया। उनका समाधि स्थल भी बाकी तीन शहीदों के साथ ही वहाँ स्थित है। ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ लड़ाई से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक बटुकेश्वर दत्त का अपने कामरेडों के साथ खड़े रहने का जज़्बा बेमिसाल है। इन शहीदों की स्मृति में यहाँ 'राष्ट्रीय शहीद स्मारक' बनाया गया है। इसके अलावा भगतसिंह की माँ विद्यावती का अन्तिम संस्कार भी यहीं किया गया था।
फांसी के फंदे पर झूलते वक्त भगतसिंह की उम्र महज़ 23 वर्ष थी। 'हमारी जान बख्श दें'- ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी। हां, भगतसिंह ने अंग्रेज सरकार को लिखे अपने पत्र में यह जरूर लिखा था कि उन्हें अंग्रेजी सरकार के खिलाफ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबंदी समझा जाए तथा फांसी देने की बजाय गोली से उड़ा दिया जाए।
भगत सिंह भारतवर्ष के क्षितिज में यकायक एक धूमकेतु की तरह प्रगट हुए और एक भभकती ज्वाला की तरह जलकर शांत हो गए। भगतसिंह आजादी की शम्मा का परवाना था। आजादी की जलती हुई दीपशिखा पर पतंगे की भांति अपनी और अपने साथियों की बलि देकर उसने आजादी की पूरी कीमत चुका दी थी।
आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगतसिंह को आजादी के असली दीवाने के रूप में स्वीकारते हुए उन्हें शहीद-ए-आज़म जा दर्जा देती है। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहीदी दिवस पर सन 2019 में पाकिस्तान के लाहौर में स्थित शादमान चौक का नाम बदलकर भगत सिंह चौक कर दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत के वक़्त यह चौक लाहौर सेंट्रल जेल का हिस्सा था और इसी चौक वाली जगह पर 23 मार्च 1931 को अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें फांसी के फंदे पर चढ़ाया था।
संदर्भ:-
1. राजशेखर व्यास, "भगतसिंह : कुछ अधखुले पन्ने" , 2009
2. Nayar, Kuldip (2007). Without Fear: The Life and Trial of Bhagat Singh. HarperCollins India.
पुस्तक का हिंदी अनुवाद 'मृत्युंजय भगत सिंह'
3. मदन लाल वर्मा 'क्रांति', शोध एवं संपादक: भगत सिंह और उनके साथी, प्रथम संस्करण 2016
4. चमनलाल, संपादक, क्रांतिवीर भगत सिंह: 'अभ्युदय' और 'भविष्य'
*प्रोफेसर हनुमाना राम ईसराण*
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